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निजी महत्वाकांक्षाओं के पतनाले में उत्तराखण्ड !

29-01-2025 11:30 PM


वरिष्ठ पत्रकार विक्रम बिष्ट की कलम से:- बेशक, उत्तराखंड की पुष्कर सिंह धामी सरकार ने देश के दर्जनों राज्यों के बीच समान नागरिक संहिता की चैंपियनशिप हासिल कर ली है। बधाई ! 

     यह भी कम रोचक नहीं है कि इसी दौरान चर्चे ज्यादा राजसत्ता के चहेते दो गाली और गोलीबाजों के करतबों के हो रहे हैं। विरोधी कहते रहें , हिन्दुओं के दो समुदायों के एक- दूसरे के खिलाफ ध्रुवीकरण की खतरनाक कोशिशें शुरू हो गई हैं। 

   उत्तरांचल राज्य निर्माण के बाद अटल जी की सरकार ने इसे विशेष राज्य का दर्जा दिया था, नित्यानंद जी को स्वामित्व सौंपने के साथ ! स्वामी जी ने अस्थायी राजधानी, स्थाई निवास जैसे नायाब तोहफे नवोदित राज्य को प्रदान किये। मूल निवास, अस्थाई- स्थाई राजधानी के हिचकोलों के बीच अब यूसीसी का वरदान भी मिल गया है। देवभूमि राज्य की देवतुल्य जनता को और क्या चाहिए ? इन्द्रसभा !

      इधर उत्तराखण्ड के असली हितैषी भी पीछे क्यों रहें! देश की आजादी के दौर में बद्रीदत्त पाण्डे से शुरू हुए राज्य आंदोलन को चार दशक बाद प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से दुत्कार मिली तो उत्तराखण्ड क्रांति दल का जन्म हुआ। पहले चुनाव में ही दल ने संभावित राजनीतिक चुनौती की पहचान बनाई थी। उसके बाद पहली बार देश के नेतृत्व ने इस आवाज को ध्यान से सुना। मई 1982 में उत्तराखंड क्रांति दल के नेताओं से बातचीत में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तत्कालीन परिस्थितियों - खालिस्तान, गोरखालैंड, पूर्वोत्तर राज्यों के अलगाववादी आंदोलनों के बीच उत्तराखण्ड राज्य निर्माण के प्रस्ताव पर विचार करने में असमर्थता जताई थी । इसके बाद उक्रांद की गतिविधियां कुछ समय के लिए ठप हो गईं।

       अगस्त 1990 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने मण्डल आयोग की सिफारिशें लागू करने की घोषणा की। इसके खिलाफ उत्तर भारत के एक बड़े हिस्से में जबरदस्त छात्र आंदोलन हुआ। उक्रांद ने विरोध की वजाए भोगोलिक दुरूहता के आधार पर उत्तराखंड को पिछड़ा क्षेत्र घोषित कर इसे ओबीसी आरक्षण की परिधि में शामिल करने की मांग की। यह कहते हुए कि उक्रांद इस बहाने अलग राज्य की मांग को थोपने की साजिश रच रहा है, यह विचार ही दरकिनार कर दिया गया।

      1994 में ओबीसी आरक्षण विरोध तो सिर्फ गढ़वाल और कुमाऊं मण्डलों तक सीमित था और पूरी कोशिशें उसे आरक्षण विरोध तक सीमित रखने की थी। उस आंदोलन का नतीजा क्या निकल सकता था ? उत्तराखण्ड को ओबीसी आरक्षण, वन कानून में संशोधन, पंचायतों का क्षेत्रफल के आधार पर परिसीमन, हिल कैडर का सख्ती से पालन और पृथक पहाड़ी राज्य के निर्माण की मांंगों को लेकर उक्रांद ने 2 अगस्त 1994 को पौड़ी में भूख हड़ताल शुरू की। मुलायम सिंह सरकार द्वारा उसे जोर- जबर्दस्ती समाप्त कराने की कोशिशों के बाद क्या हुआ - आखिरकार राज्य बन गया। 

     आंदोलन आरक्षण विरोध तक ही सीमित रहता तो ?

    विडम्बना यह है कि उत्तराखंड की राज्य सरकारें शुरू से ही उत्तराखण्ड से चूहे- बिल्ली का खेल खेलती आ रही हैं। 1994 में कई छात्र नेताओं के बीच उत्तराखंड का प्रफुल्ल महंत बनने की होड़ मची हुई थी। आजकल मास्टर जी को एक और गांधी साबित कर खुद मुख्त्यार बनने की ख्वाहिशें जोर मार रही हैं।

  सरकार भी क्यों पीछे रहे, इसे भारी बहुमत हासिल है और लगातार मिलता जा रहा है। सत्ता की मलाई के चटखारों के साथ इतिहास पुरुष बनने की महत्वाकांक्षाएं (वास्तविक इतिहास पुरुष, महिला के अलावा) किसे नहीं होती है ! 

   उत्तराखण्ड तो गरीब की.... ऋषिकेश, रुड़की, खानपुर, लंढ़ौरा....तक यू ...


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