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संपादकीय: उत्तराखंड में बहुत शीघ्र भू-कानून बनाया जाना हितकर है- लोकेंद्र जोशी

28-06-2024 12:07 PM

नई टिहरी/ घनसाली

संपादकीय - उत्तराखंड में सख्त भू-कानून की बहुत आवश्यकता है। उत्तराखंड की सरकारों ने अपने राजनैतिक स्वार्थों के लिए, मूलनिवास समाप्त कर स्थाई निवास लागू कर दिया। सारे बाहरी प्रदेश के नागरिक यहां सरकारी नौकरियों और अन्य लाभ ले रहे हैं। धीरे धीरे भूमाफिया उद्योग धंधों के नाम पर, जमीन की खरीद फरोख्त करते चले अा रहे हैं । अभी से चारधाम यात्रा मार्गों और तराई क्षेत्र में पूंजी पति भू माफियाओं के साथ मिल कर काबिज हो गए हैं ।


         राज्य में पहले से ही कृषि भूमि नगण्य रह गई। इसके कई कारण है! उत्तराखंड का अधिकाश भू भाग पहाड़ी है जहां बड़ी संख्या में ग्लेशियर, छोटी बड़ी नदियां और गाढ़ गधेरे होने से जल सम्पदा प्रचूर मात्रा में है। उन पर बारिस से पानी की अधिकता में भूस्खलन से बाढ़ से भूमि का नुकशान होता है, दूसरा,पूरी जल सम्पदा पर जल माफिया की गिद्द दृष्टि , राज्य के सत्ताधारियों की मिलीभगत से पड़ चुकी है। और नदियों की खरीद फरोख्त राज्य बनने के बाद से चल रही है। एक तरह से सरकारों के द्वारा अपने अपने मौकों पर स्थानिय नागरिकों को विश्वास में लिए बिना, अपने स्वार्थ पूर्ति के लिए नदियों का विक्रय कर किया गया है !


नदियों को स्थानीय नागरिकों को विश्वास में लिए बिना,बिजली बनाने और विकास के नाम पर लोगों के साथ छलावा किया जा रहा है। पहले तो ज़मीन के पट्टों गलत ढंग से आवंटन, मिली भगत कर के किए जा रहे हैं, उसके बाद अनाप सनाप तरीकों से परियोजनाओं के निर्माण से जमीनों की खुदाई के मलबे को डमपिंग यााड के बजाय, इधर उधर बिखेर कर आवंटित पट्टों से कई गुना अधिक भूमि जिनमें कृषि योग्य भूमि को बर्बाद किया जा रहा है। 

  

दूसरा नदियों का पानी रोक कर बिजली बनाने के नाम पर पानी सुरंगों में डाल कर और नहरों के माध्यम से नदियों को सोखा जा रहा है। जिसके परिणाम स्वरूप नदियों के दोनों ओर की भूमि खनन के मलबे से बर्बाद होने के बाद बचिखुची कृषि योग्य उपयोगी भूमि सिंचाई से वंचित हो रही है। पानी के अभाव में स्थानीय काश्तकारों के गाय चराना, पनघट और यहां तक कि, शमशान घाटों में पानी उपलब्ध नहीं हो रहा है। शिकायतें होने पर काश्तकारों को मुकदमों में फंसना और देख लेने तक की धमकियां दी जाती है।


नदियों का पूरा जल बांध बनाकर बिजली पैदा कर खूब मुनाफा कमाया जाना लग गया है। भले ही स्थानीय नागरिकों को शुद्ध पीने का पानी और खेतों की सिंचाई मुनासिब न हो ! बांधों के नाम पर नदी घाटियों की कृषि योग्य भूमि खुर्दबुर्द कर जल माफियों को दी जा रही है। इसमें निर्वाचित सरकारों के प्रतिनिधि और स्थानीय प्रशासन के लोग संलिप्त रहते हैं।


भाजपा सरकार में दिवाकर भट्ट के राजस्व मंत्री रहते बाहरी नागरिकों को दो नाली भूमि खरीदने का कानून बना था। तो उस बने भू -कानून में संशोधन कर दिया गया। और उद्योगों के नाम पर मन माफिक भूमि खरीदने हेतु सरकार ने क्षिक्षा तक को भी उद्योगों का दर्जा दे दिया। दिवाकर भट्ट के समय में बने उक्त भू- कानून को उलट कर, भू-माफियों को उत्तराखंड में घुसने का रास्ता साफ कर दिया। 


    पेड़,जंगलों और बन भूमि पर पहले से वन अधिनियम के कारण राज्य के मूल निवासयों पर बड़ी भारी मार पड़ी हुई है, और स्थानीय नागरिकों के मूलभूत सुविधाओं के सड़क (परिवहन), स्वास्थ्य आदि सारे विकास कार्य ठप पड़े हैं। जबकि उसी बन अधिनियम की अनदेखी कर माफियों के हित में हजारों की संख्या में हरे पेड़ो तक का अंधाधुँद कटान किया जा रहा है। 


      अविकसित प्लान के कारण मोटर मार्गों के मलवा को ठेकेदारों के द्वारा डंपिंग याड की जगह इधर उधर फेंके जाने की वर्षों पुरानी आदत को तो अब मान्यता ही दी गई,जिस कारण मन मर्जी से ठेकेदार और विभागीय अधिकारी,की वजह से सड़क निर्माण के मलवे से पांच से दस गुना भूमि बर्बाद और बंजर हो रही है।तथा इन्ही कारणों से इमारती वृक्ष उपयोगी पेड़ पौधे और अन्य प्रजाति की बेशकीमती बन संपदा नष्ट होती चली आ रही है । जिस पर सरकारी स्तर पर भी कोई रोक अथवा उपयुक्त ब्यवस्था नहीं की गई है।


 दूसरी ओर सड़क के मलवे से कस्तारों की कृषि योग्य भूमि मलबे से दब जाने से भूमि कृषि योग्य न रहने के बावजूद भी भूमि का मात्र दबान का रुपए दिए जाते हैं जिसकी धंराशि नगणय है। अगर काशत्कार अपने खेतों/भूमि से मालवा हटाना चाहेगा तो काशत्कातर को भूमि के दबान् के बदले मिली हुई धनराशि से हजार गुना अधिक धन राशि खर्च होगी। यह समस्या पूरे पर्वतीय क्षेत्र में है जिससे कश्तकार हाथ मल कर रहा जाता क्योंकि वह रोये तो रोए किससे और बोले तो बोले किस से!? हाँ यहाँ यह भी ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि विकास योजनाओं में अधिगृहित की गई भूमि के रक्वे का ही प्रतिकर मैदानों की तर्ज पर ही दिया जाता है, जबकि पर्वतीय क्षेत्रों में काशत्कार भूमि /खेतों को खूब बड़े बड़े ऊँचे पुस्तों तक देकर करता है। तो प्रतिकर भी उसी हिसाब से मिलना चाहिए। 

   

     इसके साथ ही प्रति वर्ष आपदा और बढ़ते हुए परिवारों के कारण कृषि योग्य भूमि नगण्य होती जा रही है। सरकारों के द्वारा 1960 के दशक के बाद पैमास नहीं कि गयी, और नए राजस्व ग्राम भी नहीं बनाये जा रहे हैं। दूसरी ओर राज्य के मूल निवासियों के लिए, कोई रोजगार नीति नहीं है, कृषि नीति में भी सकारात्मक पहल हो कर, जंगली जानवरों से भी खेती खतरे में है। चीड़ के जंगलों की बड़ी संख्या में वृद्धि होने से भी उपयोगी भूमि और जल स्रोत नष्ट होते जा रहे हैं। 


    इसलिए कि बहुत जरूरी है राज्य सरकारें उत्तराखंड के निवासियों की आवश्यकता के हिसाब से शीघ्र भू - कानून बनाए और इसको गंभीरता से अमल में लाने की आवश्यकता है। वरना ऐसे ही हाल रहे तो उत्तराखंड के आम नागरिक उत्तराखंड में अपनी भूमि से वंचित हो कर उनका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जिससे आम आदमी का जीवन जीना दूभर हो जाएगा। इन सभी कारणों को गंभीरता से देखते हुए उत्तराखंड में कठोर भू कानून की आवश्यकता है, ताकि राज्य वासियों के हितों को सुरक्षित रखा जा सके।

      लेखक - लोकेंद्र दत्त जोशी, उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, पत्रकार 


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