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टिहरी:
गढ़वाल रियासत की राजधानी तब श्रीनगर (गढवाल) थी । सन् 1803 में गोरखों नें गढ़वाल पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया था। उस समय गढ़वाल के राजा प्रदुमन शाह थे जो गोरखों से जान बचाकर भाग रहे थे। गोरखों नें उनका पीछा किया और गोरखों से भीषण संघर्ष के बाद महाराजा प्रदुमन शाह देहरादून के खुड़बुडा़ में मारे गए । कुंवर सुदर्शन शाह तब छोटे थे , उन्हें किसी तरह बचाकर सुरक्षित स्थान में पहुँचा दिया था । सुदर्शन शाह जब बड़े हुए तो उन्होंने गोरखों से रियासत को आजाद करने के लिए अंग्रेज़ सरकार से सहायता मांगी। अंग्रेज़ सरकार इस शर्त पर सहायता देने को तैयार हो गए कि युद्ध में आने वाला ख़र्च राजा सुदर्शन शाह को देना पड़ेगा । अंग्रेज़ों की फ़ौज़ दिसम्बर1815 में गढ़वाल पहुँची । गोरखा फ़ौज़ खुखरी और तलवार से लड़ने वाली फौज थी ,वे अंग्रेज़ फ़ौज़ के बन्दूकों के सामने कहाँ टिकने वाली थी । हारकर गोरखे गढ़वाल छोड़कर नेपाल भाग गए । गोरखों नें भागते हुए रियासत का पूरा ख़ज़ाना भी साथ ले गए। गोरखे तो चले गए , अब अंग्रेज़ों को युद्ध का ख़र्च देना था , ख़ज़ाना देखा तो पूरा खाली था । ऐसी स्थिति में क्या किया जाय । फिर राजा सुदर्शन शाह एवं अंग्रेज़ों के मध्य संधि हुई कि बतौर युद्ध ख़र्च अलकनंदा के पार वाला भूभाग अंग्रेजों को दे दिया जाय, गढ़वाल वाला हिस्सा अंग्रेज़ों को दिया दे दिया गया और टिहरी गढ़वाल वाला हिस्सा राजा सुदर्शन शाह को दे दिया गया ।
राजा सुदर्शन शाह अपने लाव लस्कर के साथ श्रीनगर से टिहरी की ओर चल दिए । टिहरी पहुँचते-पहुँचते शाम हो गई । राजा ने वहीं रात्रि विश्राम हेतु पडा़व डालने की घोषणा की । टिहरी धुनारों की बस्ती थी , जो लोगों को नदी पार कराने का कार्य करते थे । दूसरे दिन सुबह जब राजा सुदर्शन शाह नें जब उस स्थान का निरीक्षण किया तो उन्हें वह स्थान बहुत पसंद आया , क्योंकि टिहरी प्राकृतिक क़िला था जो भागीरथी और भिलंगना नदी के बीच एकदम सुरक्षित स्थान था । राजा सुदर्शन शाह नें टिहरी को राजधानी घोषित करते हुए 28 दिसम्बर 1815 को विधिवत रूप से रियासत का कार्य करना प्रारम्भ किया. कुछ इतिहासकार इसे 29 दिसम्बर भी मानते हैं।
आज ही के दिन सन् 1815 को टिहरी रियासत की स्थापना हुई थी । 105 वर्ष यहाँ रियासत की राजधानी रही । 1920 में राजधानी नरेन्द्रनगर स्थान्तरित होने के बाद भी टिहरी में पुरानी रौनक बनी रही । टिहरी में बांध बनने लगा और इसे जल समाधि दे दी गई । इसी के साथ टिहरी की संस्कृति , यहाँ की क़िस्से - कहानियाँ , संघर्षों, बलिदानों एवं रियासती जुल्मों की के दंश भी हमेशा के लिए अथाह जल में दफ्न हो गए । टिहरी भले ही डूब गया हो किंतु इसकी यादें आज भी यहाँ के लोगों के अन्दर ज़िंदा हैं और ज़िंदा रहेंगी ।
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