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हिंदी दिवस अनुशीलन- राजीव नयन बहुगुणा

14-09-2022 11:50 PM

वरिष्ठ पत्रकार राज़ीव नयन बहुगुणा की ‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌कलम से:- 

हिंदी अथवा कोई भी भाषा  पुस्तक, लाइब्रेरी, कोष  अथवा  व्याकरण का विषय  नहीं है।

भाषा  और नदी, दोनों घेरदार , घुमावदार, स्वच्छन्द बह कर ही स्वयं को सँस्कारित, परिषकृत और विकसित करते हैं।

भाषा  अध्ययन - मीमांसा से अधिक  यात्राओं से

 समृद्ध  होती है।

सर्वाधिक समृद्ध भाषा  पद यात्री की होती है , और  सर्वाधिक दरिद्र भाषा  विमान यात्री की।

विमान यात्री दूसरों के सम्पर्क में सिर्फ़ कुछ देर के लिए  आता है, और वह  भी  औपचारिक, वह अपनी अकड़ और  फ़र्ज़ी करेक्टर की वजह किसी से संवाद नहीं करता।

सिर्फ़ विमान के डावांडोल होकर गिरने की स्थिति में हाय हाय करता है. अन्यथा झूठ मूठ  अख़बार में मुंडी घुसाए  रखता है।

जबकि पदयात्री को चूल्हा जलाने वास्ते लकड़ी मांगने, ठौर  मांगने, नमक मांगने और  आगे का रास्ता पूछने वास्ते स्थानीय लोगों से सम्पर्क करना ही होता है।

इसी लिए  हिंदी के पुरोधा कोई प्रोफेसर या स्कोलर नहीं रहे.

बल्कि कोई खंजड़ी बजा कर गाने वाला अंधा , करघे पर बैठ  चादर बुनता जुलाहा, कठौती में चमड़ा सिझाता रैदास चमार अथवा  राजपाठ त्याग पैदल यात्रा करती मीरा आदि रहे हैं.

व्याकरण तिजोरी में रखे धन की तरह है, जो सिर्फ़ एक आश्वासन है।

जिस तरह रिजर्व बैंक का गवर्नर  100 ₹ के नोट पर लिख देता है कि मैं धारक को 100₹अदा करने का वचन देता हूं।

लेकिन आप वह नोट लेकर उसके पास जाकर सौ रूपये मांगे, तो क्या वह देगा? और कहां से देगा, जबकि उसके पास स्वयं भी वही  कागज़ है ?

जबकि व्यवहार में बरती जाने वाली भाषा  राहुल गाँधी के टी शर्ट अथवा  केजरीवाल के मफलर की तरह है।

जो सतत उपयोग में भी है , और  चर्चा में भी।

आम नागरिक के जिम्मे व्याकरण को सहेजने का काम नहीं है।

वह अचार्य पाणिनि, आद्य शंकराचार्य  या मुझ जैसे  पुरुषों पर छोड़ दो, जिन्होंने अनेक भाषाओं को धमन भट्टी में पिघला कर उनका सत  जमा किया है।

जन सामान्य को अनार  का शोधन कर उसे ग्लूकोज़ बनाने का नुस्खा सीखने  की आवश्यकता नहीं।

उसके लिए  इतना ही अभीष्ट है, कि वह अनार खाये, और ज़रूरत  पड़ने पर ग्लूकोज़ की सुई लगवाए।

भाषा का व्याकरण जाने बगैर  भी आप उसके प्रसारक हो सकते हैं , जैसे  गाँधी थे।

एक अचार्य के लिए  भी  पुस्तकों से निकल कर समय समय पर यात्राएं कर भाषा  का विन्यास करना आवश्यक है।

इसी लिए  मैं आज हिंदी दिवस पर बिना किसी काम के कुर्माँचल  की यात्रा पर प्रयाण करता हूं।

याद रखो , भाषा तुम्हारी अंतिम शरण है. जब तुम्हारी सरकार और  तुम्हारे परिजन भी तुम्हें त्याग देते हैं, तब तुम्हारी भाषा ही

तुम्हें जीवित रखती है।

दान, पुण्य, सतकर्म सब यहीं छूट जाते हैं।

अंत समय में केवल तुम्हारी भाषा  तुम्हारे साथ  जाती है।

सूचित रहो, कि महान राजनेता पं गोविन्द वल्लभ पंत अपने पी एस को अंग्रेज़ी में डिक्तेशन दे रहे थे।

उन्हें स्ट्रोक पड़ा, और वह  हिंदी में दिक्तेशन देने लगे।

फिर शनै वह  मूरछा में चले  गए , और  साऊथ इंडियन पी एस को कुमाउनी में दिक्तेशन देने लगे।


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