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Editorial: उत्तराखंड में दैवीय आपदा अथवा मानवजन्य कारक - विष्णु प्रसाद सेमवाल

02-09-2024 07:09 AM

विष्णु प्रसाद सेमवाल "भृगु" की कलम से 

    भिलंगना ब्लॉक के तमाम गांवों में आई भीषण आपदा के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ विचारक विष्णु प्रसाद सेमवाल ने कहा कि वर्तमान में अनेक रुप में जो दैवीय आपदा उत्तराखंड और शहरी क्षेत्रों में जल भराव के कारण जो सृष्टि चक्र में उथल पुथल का घटनाक्रम हो रहा है। उस पर सम्पूर्ण पर्यावरणविद् मौसम विज्ञानी खगौल शास्त्री अपने अपने शोध कार्य में लगे हैं कि क्या कारण है कि उत्तराखंड में इतना भूस्खलन की स्थिति दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। इन आपदाओं में एक तरफा अधिक कारण मानवजनित हैं अथवा प्रकृति जन्यसृष्टि के कारण से उत्पन्न हो रही है तो कुछ अनुभव जो मुझे हुआ उसके कारण मैं समझता हूं कि  दैवीय आपदा और मानवीय हस्तक्षेप से आने वाली दोनों आपदाओं को अलग अलग रुप में देखा जा सकता है। जैसे कि दैवीय आपदा भूकंप ( भ्यूचळ) आना , भंयकर अकाळ) सूखाग्रस्त होना , अतिवृष्टि , ओलावृष्टि, अनावृष्टि आकाशीय बिजली चमकना,( चडक पड़ना चटक गिरना) वज्रपात  होना,पनगोला पड़ना, ज्वालामुखी फटना,प्रकोपित शीतलहर , चक्रवात बर्फीला तूफान होना, समुद्री तूफान आना यह सारे प्रकोप प्रकृति जन्यसृष्टि प्रकोप होने के कारण इसे ही हम दैवीय आपदा कहते हैं और इसके होने के बाद मानव जन्य ढूंढ आरंभ हो जाती है कि किन कारणों से यह घटनाएं हो रही है  ।

    प्रथम कारण माना जाता है कि हिमालयी क्षेत्रों में लोगों के द्वारा जो पेड़ों का अवैध रूप से कटान किया जा रहा है l। उसके फलस्वरूप पर्यावरणीय असंतुलन हो रहा है। इस संदर्भ में हमें तीस चालीस साल पहले की काश्तकारी का मूल्यांकन करना चाहिए कि पहले पेड़ कटान अधिक था कि अब ? तो पायेंगे कि अब पूर्व की अपेक्षा वर्तमान में जंगली काश्तकारी सामग्री का प्रयोग बहुत कम मात्रा में हो रहा है पहले ग्रामीण क्षेत्रों के जितने आवासीय /गौशाला/पंचायत भवन/मन्दिर एवं छानियां निर्मित होती थी। उसमें शतप्रतिशत लकड़ियों का प्रयोग होता था एक परिवार को दसों पेड़ों से अधिक काटकर मकान बनते आज सीमेंट,  ईंट और लोहे की इतनी व्याप्ति हो गई कि घरों से इमारती लकड़ियों का प्रयोग होना बन्द हो गया है अब प्लाई , शाल सागोंन के खिड़की, दरवाजे गांव में लग रहें हैं छानियों में त्रिपाल और गौशाला में टिन शेड निर्माण होता है।

    घरेलू एलपीजी सिलेंडर आने से जो तिसाला चक्रीय सामूहिक लकड़ियों का कटान होता था अब नामात्र की लकड़ियां काटते हैं छ महीने तक पहले पशुधन जंगलों में रैन बसेरा बनाकर टनों लकड़ी जलाते थे वह भी अब पलायन के कारण लुप्तप्राय स्थिति में है।

    वन गुजरों के द्वारा भी मावा बनाने और छान निर्माण में बहुत पेड़ काटते थे जोकि अब बहुत कम वन गुजर अवशेष है वे भी शहरों में विस्थापित हो चुके हैं।

    उपरोक्त वर्णित आशय यह है कि उसके बाद भी कह जाता है कि हिमालय क्षेत्र में पर्यावरण प्रदूषण के कारण यह सारी आपदाओं आ रही है इसके कुछ कारण यह भी हो सकता है कि

01.  उत्तराखंड की वसावट सीढ़ी नुमा है खेती हो अथवा मकान सब सीढ़ी नुमा है जिसका सारा दारोमदार दिवालों (सुरक्षा दिवाल) पर टिका होता है हमारे खेतों की दीवालें बहुत ऊंचाईयों की होती है और अधिकांश खेत सिंचित क्षेत्र है हमारे लोग निडारा (जलनिकास) पर सबसे अधिक जोर देते थे हर खेत के पानी का रुख गदेरों और नदियों की तरफ  हर किसान निडारा ,(नाली) और असिंचित भूमि पर सुर्रा) नालियां बनाकर क्रमशः आदि से अंत तक बनाते आजकल 90%भूमिबंजर होने के कारण खेतों झाड़ियों के कारण जलनिकास पूरा जमीन में समाने लगता है और सारा पानी जमीन में घूस रहा है हर खेत का पानी इतना वजनदार हो जाता है कि पूरा क्षेत्र भूस्खलन की स्थिति पैदा कर रहा है।

 02* सरकार भी कृषि विकास के लिए मनरेगा , लघु सिंचाई और सिंचाई विभाग के अलावा अनेक योजनान्तर्गत नहरों गूलों एवं हाफसूट निर्माण कार्य हेतु आर्थिक व्यवस्था सुनिश्चित हो रही है फलस्वरूप नहर और गूलों का निर्माण तो हो जाता है किन्तु रखरखाव की कोई व्यवस्था नहीं है पहले हर नहर गूलों में बेलदार होने से अधिक वर्षा और रात को पानी कम करने हेतु बेलदार की पूरी जिम्मेदारी होती आज नहरें बहुत बन गई बेलदार एक नहीं !

03* यह एक प्रामाणिक सत्य है कि उत्तराखंड की धरती शान्त प्रिय क्षेत्र है शायद यही कारण है कि हमारे ऋषि मुनियों ने तपोस्थली के रूप हिमालयी क्षेत्र को समुचित स्थान माना क्योंकि कोलाहल युक्त वातावरण और बाह्य बिस्पोटक यंत्रों की तोड़फोड़  सहन करना यहां की तासीर नहीं है आज बिकास की आवश्यकता के कारण जिस प्रकार से उत्तराखण्ड के सीमांत क्षेत्रों तक इतनी भारी मशीनरी पहुंच गई है कि जितना भार और कम्पन्न शक्ति की धारण क्षमताओं से बाहर हो जाता है जिसका परिणाम हिमालय भूगर्भ परतें जर जर हो जाती है और वर्षा थोड़ा अधिक हुई नहीं कि चट्टानों का दरकना शुरू हो जाता है।

04*प्रायः देखा गया है कि अधिकांश भूस्खलन उस क्षेत्र में होता है जहां शंक्वाकार जैसे देवदार , चीड़ ,रैई ,मुरेंड ,थुनैर, आदि का वन क्षेत्र होता है क्योंकि इनकी लम्बाई अधिक होती है और थोड़ी सी हवा होने पर यह जड़ तक हिलते डुलते हैं जिसके कारण पेड़ों के आसपास की जमीन भुरभुरी हो जाती है जबकि बांज , बुरांश चमखडिक पंञ्या वाले जंगल का भूगर्भीय परत बहुत शक्तिशाली होता है इन पेड़ों का फैलाव जितना ऊपर होता है उतना ही नीचे विस्तार होता है।

    उपरोक्त आशय यह है कि उत्तराखंड में जो अतिवर्षा और भूस्खलन का कारण मात्र यह नहीं है कि है कि वहां पेड़ काटते हैं इस बात को मैं स्पष्ट करना चाहता हूं कि यदि जंगल कटते हैं तो निर्माण कार्य से कट रहे हैं, भारी मशीनरी के आवागमन से जो वायब्रेशन (भूमि थराथराहट) बड़े बांध निर्माण, सुरंगों का निर्माण , खेतों में जो परम्परागत निडारे नालियां ,कूलसुर्ये देने बन्द हो गये।

सम्पूर्ण क्षेत्र में अधिक झाड़ियों के उग जाने से पुराने जलमार्ग का स्वरूप बदलता जा रहा है अधिक सीमेंट के उपयोग से पानी का सघनीकरण हो जाता है जो पानी जमीन में धीरे धीरे रिसाव करता वह एकमुश्त बहकर खतरनाक हो जाता है इन सारी समस्याओं का समाधान सामाजिक और वैज्ञानिक और राजनीतिक स्तर पर सोचा जाना चाहिए।

           साभार:-  विष्णु प्रसाद सेमवाल भृगु

   अध्यक्ष ग्रामोदय सहकारी समिति लि भिगुन टिहरी गढ़वाल


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