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जैविक उत्पादों की मांग पर जंगली जानवरों का अत्याचार: विष्णु प्रसाद सेमवाल

08-11-2022 03:05 AM

    उत्तराखंड में जैविक उत्पाद की मांग दिन प्रति दिन बढ़ती जा रही है अनेक संस्थाएं ,व्यापारी और व्यक्तिगत रूप में लोग पहाड़ी कृर्षि उत्पादन खरीद हेतु ग्राम सम्पर्क में जा रहे हैं खरीददार बढ़ रहें हैं और कृर्षि उत्पादन क्षेत्र तथा उत्पादक उतनी ही अधिक मात्रा में घट रहे हैं यह बड़ा संक्रमण दौर है कि वस्तु की मांग बड़ी मात्रा में बढ़ रही तो आज गांव में उद्यमी किसानों की संख्या और रूचि घटती जा रही है इन कारणों की भी खूब चर्चा परिचर्चा उद्यमी , उपभोक्ता और बौद्धिक मंचों में चलती है कि आज सरकार भी कृषि सुधार में अनेक लोकहित योजना का क्रियान्वयन कर रही है कोदा ,झंगोरा , सोयाबीन , लाल चावल चौलाई दलहन तिलहन उत्पादन के खरीदार घरों तक आकर अच्छे दाम देने के लिए तैयार हैं उसके बाद भी किसान फसल क्यों नहीं उगाता है कहा जाता है कि अब कुछ काम नहीं करना चाहता है जबकि किसानों के अपने अपने तर्क हैं कि।

1, बन्दरों और सुअरों की सैकड़ों टोलियों में बढ़ोतरी 

    हर प्राणी मात्र की अपनी अपनी सीमाएं और रैनबसेरे निश्चित प्रिय होते हैं उसमें बन्दर , सुअर ,भालू , और लंगूर उसी श्रेणी के जीव हैं जिनके अपने निश्चित क्षेत्र हैं अब काश्तकारों का अपना मानना है कि टिहरी बांध में जो गांव बिस्तापित और जितना भूखण्ड जलमग्न हुए जिसके दोनों तरफ का क्षेत्रफल लगभग सौ किलोमीटर से अधिक हो सकता है और चौड़ाई के क्षेत्रों में भी नदी तटों में वन्यजीव के रैन बसेरे थे सरकार ने डूब क्षेत्र के मानवीय जनों का विस्थापन किया किन्तु आच्छादित क्षेत्र में गांव में बंन्दर सुअर ,भालू , लंगूर जलभराव के बाद कहां गए और कितने क्षेत्रों में छोटे बड़े परियोजनाओं से ग्राम और भूखण्ड में विस्थापन और जलभराव हुआ और उन स्थानों के बन्दर सुअर भालू लंगूर कहां है इसका उत्तर किसी बिशेषज्ञ योजनाकार और जनप्रतिनिधियों के पास हो तो काश्तकारों का मार्गदर्शन करें।

2. दूसरा तर्क किसानों का होता है कि पहले भी बन्दर भी होते थे सुअर, भालू और लंगूर भी हुआ करते थे और फसल उत्पादन भी खूब हुआ करता था अब लोग बन्दरों, सुअरों का रोना ज्यादा ही रोया जाता है पहले भी तो लोग बन्दरों को भगाने के लिए बन्दरवाला , चौकीदार लगाते थे अब क्यों नहीं तो किसान भी अपनी पीड़ा व्यक्त करता है कि पहले शतप्रतिशत परिवार खेती बाड़ी करते थे और जो बन्दरों का चौकीदार होता तो उसे चौकीदारी के बदले में उत्पादित अन्न के हिस्से से वहन किया जाता था घास चौकीदारी भी साथ में देय होता जनसंख्या अधिक होने से रात की चौकीदारी भी हर परिवार सदस्य ओडा (मचान) बनाकर सुअर , भालू को भगाते संख्या अधिक होने पर चहलकदमी भी ज्यादा होती इसलिए आसानी से फसल सुरक्षा में सुबिधा रहती थी।

3. पहले 90%जमीन काबिज होती थी सिंचित असिंचित भूमि में फसल उत्पादन समान रूप से इसलिए भी था कि हर परिवार की अपनी चकबंदी (घेरबाड) पत्थर निर्मित चार पांच फीट ऊंची होती थी और उसकी मरोम्मत हर तीसरे चौथे साल सभी परिवार अपने अपने सीमा क्षेत्र में करते थे अब 90%जमीन उपभोक्ता पलायन कर चुके हैं अब 10%काश्तकारी का किसान इतना महंगाई का घेरबाड निर्माण नहीं कर सकते हैं और न पत्थर निर्माण के मिस्त्री गांव में रहे।

     उपरोक्त सम्पूर्ण बिषय जमीनी हकीकत को स्वीकार कर समस्या समाधान को गम्भीरता पूर्वक चिन्तन और मनन किया जाना बहुत आवश्यक है बन्दरों सुअरों की संख्या भी अब साध्य नहीं अपितु असाध्य पूर्ण स्थिति में है और पलायन होना भी एक सैलाब की अवस्था में है इन रोगों को यदि हम साधारण रूप समझते हैं तो यह शुतुरमुर्ग की तरह सुरक्षित सोच होगी कि चोंच बालू में घुसाना है।

    जब किसानों से समाधान की बात पूछें तो किसान कहते हैं कि बांध क्षेत्र के बन्दरों की टोलियां भी हमारी फसलों को क्षतिग्रस्त करते हैं सरकार को क्षतिपूर्ति रूप में सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि मनरेगा अथवा बिद्युत उत्पादन परियोजना कम्पनियों को चौकिदारी व्यवस्था सुनिश्चित होनी चाहिए।

4. बिधायक निधि सांसद ,जिला पंचायत निधियों को मात्र कृषि उपज चैनल बाड आदि पर व्यय किया जाना चाहिए उन्नति शील कृषकों को गांव में ही सम्मानित करने की नीति बने।

    भाव संग्रह कर्ता बिष्णु प्रसाद सेमवाल अध्यक्ष ग्रामोदय सहकारी समिति लि भिगुन


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