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🏔️ कई रोगों का इलाज करता है मोटा अनाज : वी पी सेमवाल | Uttarakhand news


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कई रोगों का इलाज करता है मोटा अनाज : वी पी सेमवाल

12-07-2023 07:49 AM

लेखक विष्णु प्रसाद सेमवाल की कलम से:- 

सरकार द्वारा मिलेट मिशन उत्तराखंड और पर्वतीय आंचलिक के लिए मोटा अनाज उत्पादन हेतु अनेक प्रकार से बिचार मंत्रणा और योजनाऐं संचालन के लिए प्रयासरत है जो किसान मोटे अनाज की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे अनाज की महत्ता इसलिए भी है कि यहां का जो उत्पादन है वह शुद्ध जैविक और हिमालयी क्षेत्र में उगने वाली फसल हो अथवा औषधीय पादप वे सब जीवन रक्षक गुण धर्म युक्त होती है यही कारण है कि हमारे पूर्वजों को नहीं कोई कैंसर रोग न उच्च रक्तचाप और नहीं निम्न रक्तचाप तथा हार्ट अटैक और टिटनेस जैसे बिमारी का नाम नहीं था जब से पहाड़ में शहर का खाद्य पदार्थ पहुंचा उसी के साथ सहेली बनकर इन रोगों से हर परिवार और व्यक्ति ग्रसित हो गया है आज शहरों के हों अथवा गांव का हर कोई बचना चाहते हैं और उसका एक मात्र बिकल्प है कीटनाशक जहरमुक्त शुद्ध जैविक मोटा अनाज ।

जब मोटे अनाज की मांग , सरकार के प्रोत्साहित बिज्ञापन , और सरकार द्वारा मिलेट मिशन योजना के अन्तर्गत उठाये जा रहे किसान हितैषी कदम अपनाते जा रहे है वह सब स्वागत योग्य है किन्तु सरकारी स्तर पर

सरकार द्वारा मिलेट मिशन उत्तराखंड और पर्वतीय आंचलिक के लिए मोटा अनाज उत्पादन हेतु अनेक प्रकार से बिचार मंत्रणा और योजनाऐं संचालन के लिए प्रयासरत है जो किसान मोटे अनाज की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हमारे अनाज की महत्ता इसलिए भी है कि यहां का जो उत्पादन है वह शुद्ध जैविक और हिमालयी क्षेत्र में उगने वाली फसल हो अथवा औषधीय पादप वे सब जीवन रक्षक गुण धर्म युक्त होती है यही कारण है कि हमारे पूर्वजों को नहीं कोई कैंसर रोग न उच्च रक्तचाप और नहीं निम्न रक्तचाप तथा हार्ट अटैक और टिटनेस जैसे बिमारी का नाम नहीं था जब से पहाड़ में शहर का खाद्य पदार्थ पहुंचा उसी के साथ सहेली बनकर इन रोगों से हर परिवार और व्यक्ति ग्रसित हो गया है आज शहरों के हों अथवा गांव का हर कोई बचना चाहते हैं और उसका एक मात्र बिकल्प है कीटनाशक जहरमुक्त शुद्ध जैविक मोटा अनाज ।
जब मोटे अनाज की मांग , सरकार के प्रोत्साहित बिज्ञापन , और सरकार द्वारा मिलेट मिशन योजना के अन्तर्गत उठाये जा रहे किसान हितैषी कदम अपनाते जा रहे है वह सब स्वागत योग्य है 
किन्तु सरकारी स्तर पर जो योजना बनती है और काश्तकारों4 की जो कठिनाईयां स्थानीय भौगोलिक परिस्थितियां होती है उसमें बहुत बड़ा अंतर (गायब) होता है जैसे सरकार द्वारा निर्धारित दैनिक मजदूरी और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित देय दैनिक मजदूरी इस दृष्टि से मैं कृषि कार्य में होने वाली 5 नाली जमीन में चौलाई की खेती में मेरा जो प्रत्यक्ष व्यय हुआ और उसका आंकलन यदि मनरेगा में अन्तर स्वयं किया जा सकता है 
घरेलू मजदूरी कुशल श्रमिक (मिस्त्री) =700रु, भोजन चाय बीड़ी अतिरिक्त
अकुशल श्रमिक पुरुष 500/600
महिला मजदूर 300/400 व्यवस्था सबके लिए समान
मनरेगा में कुशल श्रमिक मिस्त्री=500/600अधिकतम
अकुशल श्रमिक 230रु महिला/पुरुष अन्य कोई सुविधा नहीं अब स्वयं मूल्यांकन किया जा सकता है कि कैसे मनरेगा और स्थानीय लोगों की मजदूरी का सामंजस्य स्थापित हो सकता है 
2,दूसरा उदाहरण मैंने स्वयं में चौलाई दाल बुताई (बुआई) का जो भुगतान किया बिवरण इस प्रकार है
     कुल भूमि 5नाली
बैलजोड़ी और मजदूर की प्रथम दिन की मजदूरी 1100, एक हजार एक सौ रुपए एक दिन 
महिला 3*400=1200 खरपतवार सफाई
दूसरे दिन हल 1000रुपये हल,बैल मजदूरी चौलाई बुआई
महिला 2*400=800रु, गोबर ढुलाई एवं बुआई
बीज कीमत चौलाई ,दाल 100रु
कुल योग 1100+1200+1000+800+100सम्पूर्ण योग=4300रुपये यह व्यय बुआई तक है आगे निराई गुड़ाई और कटाई छंटाई भविष्य का व्यय विवरण अवशेष है लगभग 6000रु पांच नाली पर व्यय होगा अब उत्पादन की मात्रा कितनी होगी वह मौसम और जंगली जानवरों के रहमो करम निर्भर करता है उपरोक्त आशय यह है कि यदि फसल का समर्थन मूल्य घोषित करेंगे तो वह स्थानीय मजदूरी के आधार पर तय होगा कि मनरेगा की दैनिक मजदूरी पर शायद कृषि बैल महत्वपूर्ण स्थान रखता है किन्तु शायद मनरेगा में बैलों की कोई व्यवस्था सुनिश्चित नहीं है यह मजदूरी सभी मोटे अनाज पर समान रूप से खर्च होने वाली राशि है जबकि फसलों का समर्थन मूल्य अलग अलग है सबसे अधिक कीमत चौलाई की 50रु किलो है शेष सब फसल कम भाव है
3, सरकार ने मिलकर मिशन का कार्य सहकारिता के माध्यम से काश्तकारों से खरीददारी करने का दायित्व दिया जिसमें अनेक सहकारी समितियां सीमांत किसानों से मोटे अनाज को निर्धारित केन्द्र तक तय कीमत पर पहुंचा रहे है क्योंकि उत्तराखंड ग्रामीण क्षेत्रों की वसावट घाटी आधारित है एक गांव की दूरी दूसरे गांव से दूर है किसानों के पास बहुत कम मात्रा का उत्पादन होता है इस लिए केन्द्र तक कोई काश्तकार पहुंचाने को तैयार नहीं होते समिति यदि इक्कठा करने के लिए मजदूर लगाते है तो उसकी मजदूरी और गांव से केन्द्र 
तक और सिलाई तुलाई के साथ गोदाम का किराया भी तय समिति को देना पड़ता है समिति लाभांश 1/2रु, प्रति किलो है

1/2रु, प्रति किलो ग्राम देय होता है अब समिति श्रमिक मजदूरी , ढुलाई केन्द्र का किराया , अथवा सिलाई पल्लेदारी एवं समिति सचिव सदस्यों का भुगतान उसी में करते हैं अभी तक लाभ प्राप्त करना तो दूर भरपाई नहीं हो पाता
4, जैसा कि सर्वविदित है कि उत्तराखंड की कृषि उत्पादन व्यवस्था 90% कार्य महिला आधारित है पुरुष मात्र हल लगाने तक सीमित है खेत में कौन सा बीज बुताई ,, बुआई,, करनी है बीज नयां पुराने से कोई लेना देना नहीं रहता सारी चिंतायें महिलाओं के हिस्से में होती है पहले गांव में बीज बिनिमय की परम्परा थी हर तीसरे साल घाटी बीज बिनिमय होता था किन्तु अब 35साल से कम और अधिक पढाई लिखाई के कारण नयीं पीढ़ी की रुचि खेती बाड़ी में है और न उन्हें फसल चक्र की जानकारी इसलिए नहीं है कि जंगली जानवरों के कारण परम्परागत फसल अब नामात्र संख्या में हैं 
समाधान ---*****1
प्रारम्भिक अवस्था में योजनाएं जब शुरुआती दौर में है तो काश्तकारों की धरातलीय समस्या और योजनाकारों का आपसी संवाद होना आवश्यक होगा क्योंकि हर घाटी , गांव और जनपद की अलग अलग प्राकृतिक स्थिति और वातावरण है
समाधान 2****स्थानीय मजदूरी और सरकार द्वारा निर्धारित मजदूरी में बहुत अन्तर है उत्पादित फसल का समर्थन मूल्य यदि स्थानीय मजदूरी पर नहीं तय होगा तो काश्तकारों को ग्रामीण खेती से लाभांश मिलना असंभव होगा
समाधान 3***उत्तराखंड में सम्पूर्ण खेती महिला आधारित रही वर्तमान में पलायन की प्रतिस्पर्धा मातृशक्ति में अधिक हो गई है इसलिए शिक्षित महिलाओं के लिए रुचि कर योजनान्तर्गत प्रोत्साहित व्यवस्था सुनिश्चित करें
समाधान 4****कार्यदायी संग्रह समिति सदस्यों , मण्डी केन्द्र संग्रहालय घाटी परक बने गांव से केन्द्र संकुल तक तथा अन्य व्यय योजना में निर्धारित हो
समाधान 5*** क्योंकि काश्तकारी कृषि योग्य अधिकांश भूमि बंजर प्रायः हो गई है उसमें कुछ औषधीय गुणों वाली वनस्पतियां प्राकृतिक अवस्था में उत्पादित हो रही है जैसे दारु हल्दी,टिम्बरु ,तिम्बूंर, ब्राह्मी , शंखपुष्पी,मण्डूकपर्णि ,वनहल्दी ,वनस्पा ,वच ,पिपर्ण्य आदि है किन्तु वन अधिनियम और संयुक्त निरीक्षण करवाने की वाध्यता के कारण महिलाएं खरपतवार की भांति इन जीवन रक्षक औषधीय पादप को जलाने अथवा सड़ाने पर मजबूर हैं यदि सहकारिता, समितियों को मिलेट मिशन योजना की तरह काश्तकारों से ही उक्त औषधीय पैतृक खेतों में वनस्पतियां भी कृषि मान्यता मिले और मोटे अनाज और खेतों में उगने वाली औषधि को एक दूसरे का पूरक मानकर आदर्श संरक्षण संवर्धन और चक्रिय रुप में बिदोहन किया जाय
     उपरोक्त समस्त अनुभव मेरे सामाजिक कार्यकर्ता के नाते ग्रामीण क्षेत्रों की जो कठिनाईयां स्थानीय लोगों की वास्तविकता का धरातलीय चिन्तन है यह सर्वाधिकार सुरक्षित मेरा स्वयं है 

             बिष्णु प्रसाद सेमवाल भृगु अध्यक्ष ग्रामोदय सहकारी समिति लि भिगुन


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