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उत्तराखण्ड के ग्रामीण विकास की अवधारणा के प्रति गंभीरता पूर्वक चिन्तन और मनन करने की नितांत आवश्यकता।

16-01-2023 01:13 AM

संपादकीय:-  

   कवि विष्णु प्रसाद सेमवाल की कलम से: आज विकास का स्वरूप दो प्रकार से माना जा रहा है प्रथम दृष्ट्या यह है कि उत्तराखंड की प्रकृति और प्रवृत्ति में बिना छेड़छाड़ किए वहां की भौगोलिक बनावट के तदनुरूप को मध्य नजर रखते हुए वहां के प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण संबर्धन और पर्यावरण को ध्यान में रखकर विकास किया जाय, जबकि वर्तमान भौतिक चकाचौंध में पले बढ़े पाश्चात्य संस्कृति में रहे लोगों का कहना है कि यदि हम आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कार से निर्मित संसाधनो का उपयोग हम विकास हेतु नहीं करेंगे तो हमारा विकास कभी हो ही नहीं सकता हम जितना प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करेंगे उतना हमारी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी क्योंकि जो चीज फालतू में जमीन के अन्दर दबी हुई है अथवा जो नदी का पानी चट्टानों के बीच फालतू बह रहा है उसका उपयोग क्यों नहीं किया जाना चाहिए, अब लड़ाई यहीं से शुरू हो जाती है कि इन संसाधनों का उपयोग बैज्ञानिकों द्वारा निर्मित भारी भरकम मशीनों को पर्वतीय क्षेत्रों के उन संवेदनशील इलाकों में ले जाना औचित्य है, जहां हमारे ऋषि, मुनियों ने सबसे भले भू अभिलेख पुराण स्कन्द पुराण और लिंग पुराण के अलावा कही पुराणों में वर्णित देवस्थान में मानवीय हस्तक्षेप के लिए स्पष्ट निर्देश हैं, स्कंद पुराण में सात खण्ड में है और उसमें केदार खण्ड में हमारे समस्त तीर्थों के संन्दर्भित दिशा, दशा और दृष्टि का उल्लेख किया गया है कि किस तीर्थ का उत्थान और पतन कब और कैसे होगा उन्हीं पुराणों में जोशीमठ में श्री नृसिंह भगवान मूर्ति की क्षीणता और भविष्य बद्री की मूर्ति का उभार (मूर्ति आकृति में बृद्धि का होना स्पष्ट है) एक बार पुनः निवेदन है कि उत्तराखंड के अस्तित्व को बचाए रखना है तो हमें पुराणों में उल्लेख घटनाओं को भी ध्यान में रखकर चलना होगा हम यहां की प्रकृति , प्रवृत्ति , सुकृति और आकृति के साथ किसी प्रकार की छेड़छाड़ जितनी अधिक करेंगे प्रकृति उतना अधिक अपना रौद्र रूप दिखायेगी क्यों कि शास्त्रानुसार देवभूमि योग भूमि है कर्मभूमि धर्मभूमि, है नकि भौगभूमि . 2013 केदार त्रासदी को लोग भूले नहीं हैं।

    यह शांत भूमि जब जब मशीनों ,वजनी यंत्र संचालन से तथा हजारों सुरंगों के बनने से उसके निर्माण हेतु उस धरती के अस्तित्व को हिला देने वाले करोड़ों डायनामाइट का उपयोग किये जाने से और अपने भौतिक चकाचौंध में बिशाल, मंजिल भवनों का निर्माण किया जाना इस पर्वतीय क्षेत्र की तासीर नहीं है।

    यहां की धरा शांत प्रिय है उसको वहीं पसन्द है कि आप अपने मानवीय हाथ के आधार पर जो निर्माण होता है वह इस धरती के लिए ठीक नही है इसके अतिरिक्त बैज्ञानिकों द्वारा बिशाल संयंत्रों , मशीनों , भवनों और बिस्फोटको का उपयोग किया जाना इस धरती के लिए असहनीय है।

    हमारे पैतृक घराटों का यदि बिद्युति करण करें तो हमारी नदी तटों पर हजारों परम्परागत घराट हैं जिनमें उतनी ही बिजली पैदा हो सकती थी तब हमें न टिहरी के हजारों गांव बिस्तापित देखने पड़ते न रैणी की त्रासदी देखनी पड़ती और न ही आज का जोशीमठ तीर्थ आज विकास की इस आग ने आद्यजगद् गुरु शंकराचार्य की तपस्थली के अस्तित्व को बिलीन कर दिया।

    आज आवश्यकता है भौतिक वाद और आध्यात्मवाद को तराजू में तौल कर विकास को तैयार करना पड़ेगा अवश्यकता यह भी है कि हजारो साल पहले लिखे गए सहित्यो और इतिहास की परिपाटी का अध्ययन कर ही विकास को प्रसस्त करने की।  

नोट:- लेख में मात्र अपनी अभिव्यक्ति है।

बिष्णु प्रसाद सेमवाल भृगु।


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