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Guru Kailapeer | जानिए क्या है बुढ़ाकेदार क्षेत्र में गुरु कैलापीर देव का महत्व? क्यों मनाई जाती है इनके नाम से एक माह बाद दिवाली?

25-11-2022 02:48 AM

बूढ़ाकेदार, टिहरी:-

:- टिहरी जनपद में अनोखी दिवाली, दीपावली के एक माह बाद आज मनाई गई इन गांवों में दीपावली ।

:- दीपावली के एक माह बाद मनाई जाती है यहां दीपावली ।

:- 90 जोला कठुड़ के लोग मनाते हैं गुरु कैलापीर दिवाली।

:- वर्षों से आज तक ये प्रथा चली आ रही है।

:- जब पूरे देश मे दीपावली का त्योहार मनाया जाता है तो इन गांवों में दीपावली नही मनाई जाती है। 

:- गेंहू की फसल में कैलापीर देवता के साथ सैकड़ों की संख्या में भक्त दौड़ लगाते है ।

:- तीन दिन तक मनाई जाती है दीपावली।

:- दिवाली के साथ भव्य मेले का आयोजन। 

     हिन्दू धर्म के अनुसार पूरे भारतवर्ष में कार्तिक अमावस को दीपावली मनाई जाती है वहीं उत्तराखंड के कुछ हिस्सों में ठीक एक महा बाद मार्गशीर्ष महीने में दीपावली और बलिराज मेले का आयोजन होता है।

    पूरे भारत देश में जहां कार्तिक मास की अमावस्या को दिवाली का जश्न मनाया जाता है, वहीं टिहरी गढवाल के थाती बूढाकेदार पट्टी और टिहरी जिले के जौनसार बावर क्षेत्र के लोग सामान्य दिनों की तरह अपने काम- धंधों में लगे रहते हैं। इसके ठीक एक माह बाद मार्गशीर्ष अगहन की अमावस्या को यहां दिवाली मनाई जाती है, जिसका उत्सव तीन से चार दिन तक चलता है।

    कई क्षेत्रों में इस दिवाली को "देवलांग" नाम से भी जाना जाता है। इन क्षेत्रों में दिवाली का त्योहार एक माह बाद मनाने का कोई ठीक इतिहास तो नहीं मिलता। पर एक प्रचलित कहानी के अनुसार एक समय टिहरी नरेश से किसी व्यक्ति ने वीर माधो सिंह भंडारी की झूठी शिकायत की, जिस पर उन्हें दरबार में तत्काल हाजिर होने का आदेश दिया गया। उस दिन कार्तिक मास की दीपावली थी। रियासत के लोगों ने अपने प्रिय नेता को त्योहार के अवसर पर राजदरबार में बुलाए जाने के कारण दीपावली नहीं मनाई और इसके एक माह बाद भंडारी के लौटने पर अगहन माह में अमावस्या को दिवाली मनाई गई। शिवपुराण की एक कथा के अनुसार एक समय प्रजापति ब्रह्मा और सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु में श्रेष्ठता को लेकर संघर्ष होने लगा। वे एक-दूसरे के वध के लिए तैयार हो गए। इससे सभी देवी, देवता व्याकुल हो उठे और उन्होंने देवाधिदेव शिवजी से प्रार्थना की। शिवजी उनकी प्रार्थना सुनकर विवाद स्थल पर ज्योतिर्लिंग (महाग्नि स्तम्भ) के रूपमें दोनों के बीच खड़े हो गए।

    उस समय आकाशवाणी हुई कि दोनों में से जो इस ज्योतिर्लिंग के आदि और अंत का पता लगा लेगा वही श्रेष्ठ होगा। ब्रह्माजी ऊपर को उड़े और विष्णुजी नीचे की ओर गए। कई वर्षों तक वे दोनों खोज करते रहे लेकिन अंत में जहाँ से निकले थे, वहीं पहुँच गए। तब दोनों देवताओं ने माना कि कोई उनसे भी श्रेष्ठ है और वे उस ज्योतिर्मय स्तंभ को श्रेष्ठ मानने लगे। इन क्षेत्रों में महाभारत में वर्णित पांडवों का विशेष प्रभाव है। कुछ लोगों का कहना है कि कार्तिक मास की अमावस्या के समय भीम कहीं युद्ध में बाहर गए थे। इस कारण वहाँ दिवाली नहीं मनाई गई। जब वह युद्ध जीतकर आए तब खुशी में ठीक एक माह बाद दिवाली मनाई गई और यही परंपरा बन गई। कारण कुछ भी हो, लेकिन यह दिवाली जिसे इन क्षेत्रों में नई- दिवाली भी कहा जाता है। मंदिर समिति के अध्यक्ष  

    भूपेंद्र सिंह नेगी ने बताया कि गुरू कैलापीर देवता मूल रूप से डोभ चांदपुर चंपावत में निवासरत थे विदेशी दमनकारी नीति के कारण उनकी पूजा पद्धति में व्यवधान आया तो देवता वहां से यहां आए, क्षेत्र क्षेत्र में पदार्पण से हम लोग दीपावली मनाते हैं कि उनकी खुशी में हम लोग दीपावली मनाते हैं, 1498 आसपास जब मान शाह की राजधानी श्रीनगर हुआ करती थी उस दौरान उन्होंने गुरु कैलापीर को 90 जोला कठुड़ से अलंकृत किया था, वो 90 जोला कठुड़ टिहरी जनपद के थार्ती और उत्तरकाशी जनपद में स्थित है, तब से यहां दीपावली मनाई जाती है। 

    वहीं उन्होंने कहा कि गुरु कैलापीर देवता जो है गढ़वाल रियासत के राजाओं और यहां के 52 गढ़़ो के वीर भड़ों के भी आराध्य देव रहे हैं। वहीं मेले में 7 पौराणिक दौड़ का जो प्रवधान है वो उस दौरान के युद्ध से जुड़ा है।

गुरु कैलापीर के साथ भक्त गेहूं की खेतों में दौड़ लगाते हैं।

गुरु कैलापीर देवता टिहरी जनपद के अलावा उत्तरकाशी जिले के 180गांवों के आराध्य देव भी हैं।

   टिहरी जनपद के भिलंगना पखंड स्थित बूढाकेदार गांव में देव गुरु कैलापीर देवता के मेले दिन सुबह ग्रामीण ढोल नगाड़ों के साथ मंदिर परिसर में एकत्र् होते हैं। इसके बाद देवता की पूजा अर्चना होती है। इसके बाद ग्रामीण देवता के पश्वा के मंदिर से बाहर आने का इंतजार करते हैं। फिर देवता की झंडी को मंदिर सेबाहर निकाला जाता है। पूजारी देवता के पश्वा को लेकर खेतों में जाते हैं। ग्रामीण उनके पीछे जाते हैं। अच्छी फसल व क्षेत्र की खुशहाली के लिए ग्रामीण देवता के पश्वा के साथ खेतों में दौड़ लगाते हैं। अंतिम चक्कर में ग्रामीण कैलापीर के त्रिशूल पर पराली चढाते हैं। इसके बाद महिलाएं आशीर्वाद लेने को वहां पहुंचती है। इस दौरान लोग मंदिर में नारियल साड़ी आदि चढाते हैं। साथ ही देवता के पश्वा को अपनी समस्या बताते हैं। 

    कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में मौजूद रही टिहरी जिला पंचायत अध्यक्ष सोना सजवाण ने 90 जोला कठुड़ के लोगों को गुरू कैलापीर दिवाली की बधाई दी और गुरु कैलापीर का आशीर्वाद लिया और जनपद वासियों के खुशहाली की कामना की।

    बीजेपी के वरिष्ठ नेता विरेन्द्र सेमवाल ने समस्त क्षेत्र वासियों को बग्वाल बलराज की बधाई देते हुए कहा कि हमारी सरकार पौराणिक धार्मिक संस्कृति को संयोजने का काम कर रही है, निश्चित ही बूढ़ा केदार क्षेत्र भी एक पर्यटन के नक्शे पर उभरकर आयेगा और जिस तरह से लोग पहले पैदल मार्ग होते हुए बूढ़ा केदार नाथ के दर्शन करके ही चारधाम यात्रा का शुभारंभ करते थे कुछ समय बाद जब इस मार्ग को केदारनाथ मार्ग से जोड़ा जाएगा तो निश्चित ही लोगों का फिर से यहां आना जाना शुरू हो जाएगा। 

    स्थानीय निवासी हिम्मत रौंतेला ने कहा कि सरकार घोषणाएं तो बहुत करती है लेकिन धरातल पर बहुत कम उतरती है, उन्होंने कहा कि पूर्व सीएम त्रिवेंद्र रावत ने कैलापीर बग्वाल, बलराज मेले को राजकीय मेला घोषित किया था ने आज तक यहां पर राजकीय जैसे कोई इंतजाम नहीं दिखाई देते हैं।

    वैसे तो उत्तराखंड के कई क्षेत्रों टिहरी के जौनपुर प्रखंड, थौलधार, प्रतापनगर, बूढ़ाकेदार, के कई इलाकों में एक माह बाद दिवाली मनाई जाती है। लेकिन दिवाली मनाने के कारण भिन्न हैं।

    इस मौके पर जिला पंचायत अध्यक्ष सोना सजवाण, ज़िला पंचायत सदस्य धनपाल नेगी, रघुवीर सजवाण, बीजेपी वरिष्ठ नेता विरेन्द्र सेमवाल, डॉ प्रमोद उनियाल, धीरेन्द्र नौटियाल, मुकेश नाथ, चंद्रेश नाथ, अनिल भट्ट, विजय रावत, कुलदीप रावत आदि हजारों लोग मौजूद रहे।


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